मेरी कहानी……चौथी किस्त-

सामान्य

उधर तीनों भाइयों का भी कुछ हाल अच्छा नहीं था। बढ़के भैया, अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपाये बेंत की कुर्सी पर चुपचाप बैठे थे। कोई भी उन्हे ध्यान से देखकर बता सकता था की उन्होने पिछले एक घंटे से अखबार का एक भी हर्फ नहीं पढ़ा है, क्यूंकी ने तो उनकी सीधी-सपाट गर्दन अपनी जगह से हिली और न ही कोई पेज पलटा गया। इसी तरह मँझले भैया दालान की मुंडेर पर चुपचाप बैठे सूनी आँखों से आँगन को निहार रहे थे। उनकी आंखो की नमी दूर से साफ दिखाई दे रही थी। हाँ, मुन्ने बाबू ज़रूर घर के अंदर-बाहर आ-जा रहे थे। साथ ले जाने वाला समान एक तरफ, लोहे के संदूकों में बंद तैयार बैठा था।

“अरे कितनी देर और लगेगी” मुन्ने बाबू ने अंदर की ओर गर्दन करके अपनी पत्नी से पूछा। “जी, बस आ गयी” स्वरूप रानी साड़ी का पल्लू सम्हालते हुए जल्दी से बाहर आने के लिए खड़ी हो गईं। तभी जैसे सुमन को कुछ याद आया और जल्दी से स्वरूप रानी को हाथ पकड़ कर बैठा दिया और कुछ नीची आवाज़ में कहा “ देखो छोटी बहू, अम्मा जी नहीं हैं, इसलिए यह बात मुझे कहनी पड़ रही है। तुम्हें जैसे ही अपने अंदर कुछ हलचल दिखाई दे, हमें बस एक लाइन की चिट्ठी ड़ाल देना, हम दोनों में से कोई भी तुम्हारे पास आ जाएगा, अपने आप को अकेला बिलकुल न समझना” कहते हुए सुमन का गला फिर भर आया। सुनीता ने भी प्यार से स्वरूप रानी का हाथ पकड़कर जैसे अपनी जिठानी की बात का समर्थन किया।

एक हाथ में अपना पल्लू सम्हाले और दूसरे हाथ से आँख के आँसू पोंछते हुए स्वरूप रानी अपने कमरे से बाहर आ गईं। सुमन-सुनीता ने उन्हें दोनों ओर से इस प्रकार थाम रखा था जैसे किसी छोटे बच्चे को खो जाने के डर से माता-पिता ने अपने हाथों में कस के पकड़ रखा है। उन लोगों के बाहर आते ही बड़के और मँझले भैया भी अपनी-अपनी जगह से उठ खड़े हुए और नन्हें बाबू के अगल-बगल खड़े हो गए। शायद वो सब अपना सहारा ढूंढ रहे थे।

स्वरूप रानी ने झुककर पहले सुमन-सुनीता के पाँव छूए और फिर अपने दोनों जेठों की ओर बड़ गईं। बढ़के और मँझले बाबू ने झुकी हुई स्वरूप रानी को हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया और भीगी पलकों से पाँव छूने को झुके नन्हें बाबू को गले लगा लिया।

नन्हें बाबू-स्वरूप रानी अपना समान लेकर दरवाजे पर खड़े तांगे में बैठ गए और पीछे छोड़ गए सुमन-सुनीता की दबी घुटी सिसकियाँ और बड़े बाबू – मँझले बाबू की नम आखें।

थुरा के बड़े बाज़ार में एक गली के मुहाने पर तांगे वाले ने अपना घोड़ा रोक दिया और मुन्ने बाबू, स्वरूप रानी के साथ तांगे से उतर कर एक तंग गली के अंदर चलने लगे। बहुत सारे घुमाव घूमने के बाद अचानक गली एक जगह चौड़े रास्ते में बदल गयी और वहीं एक तरफ एक हवेली का दरवाजा था जिसके सामने एक बड़ा सा डंडा लेकर घनी मूँछों वाला दरबान पहरा दे रहा था।

“आइये-आइये बाबूजी, बहुजी ये बक्सा हमऊँ दे दो” दरबान ने तांगा रुकते ही आगे आते हुए कहा। स्वरूप रानी पहले थोड़ा हिचकीं और संकोच से भरी नज़रों से नन्हें बाबू की ओर देखा, “ अरे घबराओ नहीं, समान इनको दे दो,” और हँसते हुए दरबान से पूछा, “आउर सुनावा मंगल सिंह, काइसे बा,” ठेठ पूर्वी भाषा में नन्हें बाबू बोले। दरबान तो मानो निहाल ही हो  गया। “सब ठीक बा, कौनों फिकर नाहीं।” उसी रौ में मंगल सिंह ने जवाब दिया और तांगे से सामान उतार कर पीछे पीछे चलने लगा।

हवेली का दरवाजा खोल कर जैसे दंपति ने अंदर कदम रखा, स्वरूप रानी तो मानों सपनों की दुनिया में ही आ गईं।

सामने एक बड़ी सी हवेली स्वरूप रानी का इंतज़ार कर रही थी। बड़े बड़े कमरे, लंबे चौड़े दालान, बड़ा सा आँगन, खुली हुई छत मानो अपनी मालकिन के इंतज़ार में कब से खड़ी थीं। स्वरूप रानी चकोरी द्रष्टि से अपना नया घरौंदा निहार रहीं थीं और नन्हे बाबू अपनी जीवन-संगिनी को प्यार भरी निगाहों से देख रहे थे। खुली हवा में सांस लेने का सुख क्या होता है, इसका आज इन  दोनों को  पूरी तरह से  अहसास हो गया।

स्वरूप रानी ने कुछ कहने को मुंह खोला ही था की सामने से मंगल को आता देख चुप हो गईं। “ बहुजी चलो आपन दौ जन आराम कर लो, हमे कमरे में सामान जमा दै बा, बाकी आप बाद में दईख लेना” मंगल ने हुलसते हुए कहा।

मुन्ने बाबू ने स्वरूप रानी को कंधे का सहारा दिया और दोनों पति-पत्नी अपने नए नीड़ की ओर बड़ गए। “अरे माई री, ये तो बिलकुल महल जैसा है,” स्वरूप रानी ने अपनी हिरनी जैसी आँखें चारों ओर घुमाते हुए कहा।“ ऐसा लगता है, मैं तो इसमें खो ही जाऊँगी” अपनी साड़ी का कोना मुंह में दबा कर हँसते हुए वो बोलीं तो उसी रौ में मुन्ने बाबू का जवाब  आया, “चलो तो अच्छा है, मैं कोई दूसरी ले आऊँगा” और वो ठठा कर हंस पड़े। शांत कमरे में एक जुगल हंसी ने मानो बारिश की बूंदों सी सरगम के सुर छेड़ दिये।

मय अपनी मंथर गति से चलता रहा और मुन्ने बाबू की छोटी सी बगिया धीरे-धीरे एक कली की महक से महकने लगी। हेमा के जन्म से जहां एक ओर उनके जीवन में संपूर्णता आ गयी थी वहीं उनके और स्वरूप रानी के सम्बन्धों में भी अटूट प्रगाढ़ता आ गयी थी। हेमा ने उनकी प्रथम संतान के रूप में जन्म लेकर मुन्ने बाबू की जिंदगी को एक नया आयाम दे दिया था। यद्यपि स्वरूप रानी को अपनी पहली संतान के रूप में एक पुत्र की कामना थी, लेकिन हेमा के आने के बाद उन्होंने अपना सारा प्यार दुलार उसको सौंप कर अपनी इच्छा दूसरी संतान के लिए रख दी। तोतली आवाज़ में पुकारती हेमा अपने माता-पिता के हर पल को खुशियों और प्रसन्नता से भर रही थी। मुन्ने बाबू और स्वरूप रानी के दिन रात अब सिर्फ और सिर्फ हेमा के मुसकाती बातों के फूलों से भरे हुए थे। उनकी दुनिया में जैसे किसी और की गुंजाइश ही न ही थी। जागो तो हेमा की आवाज़ से, दिन में बैठो तो हेमा की आवाज़ पर, शाम उतरती तो हेमा की आवाज़ के साथ और रात आती तो हेमा के घुंघरुओं की खनक के साथ।

मुन्ने बाबू अब सहाय साहब के नाम से जाने जाते थे और अपने कार्य और ज़िम्मेदारी के प्रति पूरनिष्ठ थे। जिंदगी एक ढर्रे पर आकर बहुत मज़े में गुज़र रही थी। तीन वर्ष बाद फिर से स्वरूप रानी में माँ बनने के लक्षण दिखाई दिये और नौ महीने बाद वो एक और पुत्री की माता बन गईं। किस्मत ने फिर इस बार उन्हें पुत्र संतान का मुख देखने से वंचित कर दिया और इस बात से स्वरूप रानी के मन में बहुत निराशा ने घर कर लिया। राजकुमारी सा रूप लेकर जन्मी पुत्री के प्रति कोई विशेष मोह न होने के कारण, स्वरूप रानी बस जरूरत भर अपना कर्तव्य पूरा कर रहीं थीं। सहाय साहब यह सब देख कर भी खामोश थे। उन्हें अपनी पत्नी के मन की पीड़ा का अहसास था लेकिन उन्होंने किस्मत के आगे हार नहीं मानी थी। हेमा और रूपा दोनों उनकी दो आँखें थीं। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, स्वरूप रानी के मन में पुत्र लालसा बलवती होती जा रही थी। अगली बार उनकी गोद में पुत्र ही खेले, इस आशा में वो कुछ भी करने को तैयार थीं। अब उन्होंने जप-तप और पूजा-पाठ की ओर अपना ध्यान लगा लिया था। रोज़ कोई न कोई साधु या महात्मा उनके आँगन में किसी प्रकार की पूजा करते नज़र आने लगे। सहाय साहब को यह सब हालांकि पसंद नहीं था लेकिन वो अपनी पत्नी के मन को ठेस नहीं लगाना चाहते थे इसलिए चुपचाप सब कुछ देख रहे थे।

 

 

मेरी कहानी……तीसरी किस्त…

सामान्य

अंधेरे में क्यूँ बैठी हो,—हेमा के पति हरीश ने कमरे में घुसते ही कहा। हेमा ने चौंक कर गरदन उठाई तो देखा, कमरे में कब से अंधेरे ने अपना अधिकार जमा लिया है और वो अतीत की गुफा में बैठी ही रह गयी।“अरे आप ऑफिस से कब आए, ज़रा आवाज तो देते, में बाहर ही आ जाती।” हेमा ने झेंपते हुए और अपने आप को समेटते हुए कहा। “तो अब आ जाओ न, मैंने सोचा तुम कुछ सोच रही हो तो क्यूँ तुम्हें परेशान करूँ”, हरीश ने मुसकुराते हुए और अपने कपड़े बदलते हुए कहा। हेमा ने झट से उठते हुए कहा, “आप चल कर आँगन में बैठें, मैं अभी चाय ले कर आती हूँ।” हेमा ने मुस्करा कर उठते हुए कहा और रसोई की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये।

बस यही बात हरीश को, हेमा की अच्छी लगती है, कभी भी और कुछ भी कहे, हेमा हमेशा उसको हंस के सुन भी लेती है और अगर देती है तो हंस कर ही जवाब भी देती है। गुस्सा करना या किसी को बुरा भला कहना, हेमा की आदत ही नहीं थी। कभी-कभी हरीश सोचता, है, क्या हेमा को कभी किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती, क्या हेमा सचमुच एक हिमखंड है जो बाहर से देखने में शांत और गंभीर लगता है लेकिन उसकी गहराई को शायद सागर भी नहीं नाप सकता।

हेमा, रसोई में जाकर हरीश के लिए चाय बनाने लगी। हरीश की यह आदत उसे बहुत अच्छी लगती थी, उसकी कोई भी जरूरत होती तो वो बिना दूसरे को अहसास कराये, अपनी बात कह देता था। इसीलिए हेमा, हरीश का बहुत ध्यान रखती थी। क्योंकि अगर हरीश को प्यास लगती थी तो वो खुद उठ कर पानी ले लेगा, लेकिन कभी किसी को कहेगा नहीं। हरीश की अपनी जरूरतें बहुत कम थीं और उनको भी पूरा करने का दायित्व किसी और का है, ये तो हरीश कभी सोच ही नहीं सकते थे।

हेमा जल्द ही अदरक-इलायची वाली चाय बिस्कुट के साथ हरीश के लिए ले आई और साथ ही बैठ गयी। यही तो वो वक़्त होता है जब हेमा-हरीश कुछ भी बात करते हैं, नहीं तो दोनो अपनी अपनी दुनिया में लगे रहते हैं, बिना किसी शिकवे शिकायत के, बस गृहस्थी की धुरी को अपनी लय में घुमाने में व्यस्त।

शायद हरीश किसी सोच में मगन थे, इसलिए चाय के घूंट चुपचाप भरने लगे। हेमा ने भी कुछ कहने या कुरेदने की कोशिश नहीं करी और अपनी यादों की पोटली उठा कर चुपके से अपने कमरे में आ कर बैठ गयी।

गभग पंद्रह दिन तक लोगों का आना-जाना लगा रहा, आखिर होता भी क्यूँ नहीं, शांति देवी, इस समय पूरे खानदान की एक मात्र जीवित बुजुर्ग थी और उनके जाने के साथ उनकी पीड़ी का भी अंत हो गया। इसलिए तेरहवीं होने तक घर में गहमागहमी बनी रही। सुमन-सुनीता ने शांति देवी की ग्रहस्थी को दो बहनो की तरह सजाने और सँवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। घर में सुरेश, अपने बड़े और छोटे चाचा यानी मँझले बाबू ओर मुन्ने बाबू, के दिल की धड़कन थे वहीं, मुन्ने बाबू अपने दोनों भाइयों की जान थे। पिता तुल्य नरेश और एक दोस्त की भांति महेश ने, अपने छोटे भाई, देवेश यानी अपने मुन्ने भैया को बेटे समान प्यार दिया था। माता-पिता के जाने के बाद, दोनों भाई इस बात का खास खयाल रखते थे की कहीं किसी बात से उनके छोटे भाई के मन को कोई ठेस न लगे।

इसी तरह सुमन-सुनीता भी मुन्ने बाबू को पुत्रवत स्नेह करतीं थीं और उनही हर इच्छा माँ की ही भांति समझ कर पूरा करने में यकीन रखती थीं। पूरे समाज के लिए, द्वारिका बाबू का परिवार एक आदर्श परिवार था, जहां छोटे और बड़े अपने अपने फर्ज़ और कर्तव्य का पूरा पूरा ध्यान रखते थे। समय की गति ने चलते चलते इस परिवार को नरेश-महेश के परिवारों में कुछ फूल ओर खिला दिये। अब तक नरेश बाबू के आँगन में चार पुत्र ओर चार ही पुत्रियों का आगमन हो चुका था। इसी प्रकार महेश बाबू भी दो पुत्रों के पिता बन चुके थे। देवेश यानी अपने मुन्ने भैया का भी उनही की पसंद की लड़की से विवाह हो चुका था और वो अपनी पत्नी के साथ, अपनी नौकरी के कारण अलग घर में अपनी दुनिया बसा चुके थे। तीनों भाइयों का प्रेम समय के साथ गहरा ही हुआ था और सभी बच्चे एक ही परिवार के अंग माने जाते थे। सबके सुख और दुख साझे थे।

मुन्ने भैया के विवाह में थोड़ी सी परेशानी जरूर आयी थी लेकिन बड़के दद्दा की समझदारी से वो भी दूर हो गयी और स्वरूप रानी, देवेश बाबू की धर्म-पत्नी बन कर इस परिवार का हिस्सा बन गईं।

समय अपनी गति से चलता रहा और बड्के और मँझले बाबू के घर में एक एक करके फूल खिलते रहे । दोनों की बगिया चार फूलों से और छह कलियों से महकने लगी। उधर नन्हें बाबू यानि देवेश बाबू के घर भी दो कलियों से महकने लगा। स्वरूप रानी अपने पति के साथ यूं तो ज़्यादातर परिवार से अलग ही रहती थीं, लेकिन उनका मन अपनी देवरानी और जिठानी के साथ रहने को ही मचलता रहता था। भरे-पूरे परिवार की सुगढ़ कन्या थी, स्वरूप रानी, जिनहे देवेश बाबू ने एक मित्र के घर होने वाली पार्टी में पसंद किया था और उसी मित्र के हाथ शादी का प्रस्ताव भी भिजवा दिया था। जब इस बात का पता बड्के और मँझले भाइयों को लगा, तो उन्हे बुरा तो लगा लेकिन उन दोनों ने अपना बड़प्पन दिखते हुए, स्वरूप रानी के माता-पिता के सम्मुख अपने हाथ जोड़ दिये तो उन लोगों ने भी अपनी कन्या देवेश बाबू के हाथ सौंप दी। उधर सुमन-सुनीता ने भी स्वरूप रानी को सहर्ष अपनी छोटी बहन का दर्जा दे दिया और सभी बच्चों की तो वो प्राण-प्यारी चाची बन गईं। थोड़े ही समय में स्वरूप रानी अपने मायके से बिछढ्ने का दर्द भूल कर इस नयी बगिया में रम गईं।

अभी स्वरूप रानी नए रिश्तों में सामंजस्य बिठाने में लगी थीं, की उनके पति का आदेश हुआ, उन्हे कंपनी की ओर से मथुरा जाना था। बेमन से ही सही, स्वरूप रानी ने अपने सारा ज़रूरी साजो-समान एक बक्से में बांध लिया। सुमन रसोई में ले जाने के लिए मठरी-कचौरी बना रही थी तो सुमन, घर में काम आने वाला बाकी साजो-समान बांधने का प्रयास कर रही थी। तीनों अपनी अपनी जगह प्रयास ही तो कर रही थीं, क्योंकि आँखें तो आंसुओं से धुंधली हो रही थीं, जिनहे वो अपने अपने आँचल से पुंछ कर अपने अपने काम में लगे रहने की नाकाम कोशिश कर रही थी और आँसू थे की शैतान बच्चों जैसे कहना ही नहीं मान रहे थे और बार बार आंखो से लुढ़क कर गालों पर बह आते थे। सुमन-सुनीता के बच्चे अपनी अपनी माओं की तीखी झिड़की खा कर एक दूसरे का सहमे हुए से हाथ पकड़ कर आँगन के एक कोने में बैठ गए थे। सुरेश सबसे बड़े भाई का फर्ज बखूबी निभा रहा था और सभी छोटे भाई बहनों का हाथ पकड़ कर एक कोने में अच्छे से बैठ गया और माँ से सुनी कहानी सुना रहा था और सभी भाई-बहन शांति-पूर्वक सुनने का बहाना भर कर रहे थे। बहरहाल, घर में एक अजीब सी शांति पसरी हुई थी।

“छोटी बहू ”स्वरूप रानी के कानों में अपनी बड़ी जिठानी की मधुर आवाज पड़ी और उधर देखने पर पाया, सुमन अपने हाथों में खाने-पीने का बहुत सारा सामान हाथों में लिए खड़ी थी। अभी सुमन कुछ कहने ही वाली थी की तभी दरवाजे पर सुनीता की चूड़ियों की आवाज़ आई। दोनों देवरानी-जिठानी ने आवाज की दिशा में देखा तो पाया की सुनीता बहुत सारे डिब्बे और कुछ अन्य समान लिए खड़ी है। तीनों एक दूसरे को देखकर मुस्करा दीं। स्वरूप रानी ने आगे बढ़कर अपनी दोनों जिठानियों का स्वागत किया और तीनों वहीं फर्श पर बैठ गईं।

“छोटि बहू” सुमन ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, “ये लो, रास्ते के लिए कुछ लड्डू और मठरी बनाए हैं, यह सबूत मिर्च का अचार जो तुम्हें बहुत पसंद है, वो भी रख दिया है और ये कुछ आम का भी अचार है, नन्हें भैया बहुत शौक से खाते है, इसलिए रख दिया है।” सुमन ने अपने आँसू छुपाते हुए कहा। “और फिर एक दम नयी जगह तो खाना बनाओगी नहीं, तो ये कुछ मटर की कचौरी और दाल की कचौरी भी रख रही हूँ, कुछ दीं तक खराब नहीं होगी और अचार के संग खाने में भी अच्छी लगेगी। साथ में यह खस का और बादाम का शर्बत भी है, जो प्यास भी बुझाएगा और ताकत भी देगा।” सुमन ने आंखे नीचे करे हुए सब कुछ कह दिया, डर था, की आँखें मिलते ही, अब तक के रोके हुए आँसू बाहर आ जाएंगे। इसी तरह सुनीता भी बोली, “ बहुजी, ये कुछ रुमाल सी दिये हैं, नन्हें भैया को रोज एक रुमाल चाहिए न, जाते ही तो मशीन खोलोगी नहीं, इसलिए, सी दिये हैं, ये कुछ सफ़ेद गिलाफ हैं, तकिये पर चड़ाने के लिए और कुछ थैले भी हैं, बाजार जाने के काम आएंगे।” स्वरूप रानी और अपने को नहीं रोक सकीं, भरभरा कर रो दीं और दोनों को एक साथ गले लगते हुए बोलीं,“ बड़ी भाभी, छोटि भाभी, मैं आप दोनों के बिना कैसे रह पाऊँगी,” और वो तीनों एक दूसरे के गले लग कर रो दीं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरी कहानी—दूसरी किस्त,

सामान्य

मंथर गति से चलते समय ने बहुत कुछ दिखा दिया इस परिवार को। द्वारिका बाबू, एक दिन दफ्तर से घर लौट कर जो सोये तो फिर उठे ही नहीं और शांति देवी बड़के पुत्र की पत्नी और उनकी आज्ञाकारिणि पुत्रवधू सुमन और पौत्र सुरेश के साथ अपना समय व्यतीत करने लगीं।

शांति देवी की बड़ी पुत्रवधू सुमन, बिलकुल उनकी प्रतिछवि थीं। आचार-विचार और व्यवहार, में सुमन, शांति देवी की परंपरा को आगे ले जाने वाली सिद्ध हुई। नरेश, उनके बड़े पुत्र भी अपने पिता, द्वारिकाप्रसाद के ही सच्चे वारिस बने। इस तरह, वंश के किरदार तो बदल गए लेकिन संस्कार नहीं बदले।

मँझले बाबू, यानि, महेश भी बहुत कुछ अपने भाई से ही मिलते जुलते थे। बस अंतर था तो थोड़ा बहुत विचारों का था। देश में आज़ादी के बाद, समाज सुधार की जो नयी हवा चली थी, उससे महेश भी अछूते नहीं थे, लेकिन संस्कारों की डोर इतनी मजबूत थी की वो अपने परिवार और माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर कुछ करने की हिम्मत नहीं कर पाये। बस कॉलेज में जाकर इंजीनेरिंग की पढ़ाई करी और उसी समय, गली में आते जाते, कन्या महाविध्यालय के छात्राओं के झुंड की सबसे सुंदर लड़की को चोरी चोरी देखते थे। साथ में इस बात का भी डर था की कोई जान पहचान वाला उनकी इस हरकत को ताड़ न ले नहीं तो उनके बड़े भैया, जिनहे वो प्यार और आदर से बदके दद्दा कहते थे, बहुत दुख होगा।

हाँ, यहाँ एक बात आपको बता दें,  नरेश और महेश, दो जिस्म और एक जान थे। महेश के लिए उनके दद्दा की इच्छा , भगवान की ओर से आया हुआ आदेश होता था , जिसे वो हँस कर मान लेते थे। वहीं, नरेश भी अपने मँझले को अपने पुत्र समान स्नेह करते थे। शांति देवी तो हँस कर सबसे यही कहती थीं, की, महेश तो गलती से उनकी कोख में आ गए, नहीं तो माँ तो उनकी सुमन ही है। इसी परंपरा को आगे करते हुए, नरेश भी सुरेश यानि अपने भतीजे को, अपना पुत्र और दोस्त मानते थे। नरेश-सुरेश की युगल जोड़ी तो सारे मोहल्ले में देखने लायक थी।

जबसे सुरेश बाबू ने इस दुनिया में आंखे खोली, तो वो उनके चाचा यानि, नरेश की ही गोद थी। बस उस पल से नरेश ने सुरेश को अपनी गोद से तब ही उतारा जब उनका दाखिला, पास के मोहल्ले में एक प्राइमिरी स्कूल में हो गया। तब उनकी मजबूरी थी की वो अपने दोस्त के साथ स्कूल नहीं जा सकते थे, नहीं तो वो सुरेश को अपनी नज़र से ओझल नहीं करते।

समय की गति को तो कोई पकड़ नहीं सका, एक दिन सुनीता, अपनी शिक्षा और सुंदरता की रोशनी के साथ, नरेश की जिंदगी में आ गईं। भाइयों की ही तरह, सुमन-सुनीता भी दो बहनो की तरह आपस में घुल मिल गईं। कोई कह ही नहीं सकता था, की वो दोनों अलग अलग परिवार और परिवेश से आयीं हैं।

इस तरह, शांति देवी की छोटी सी फुलवारी, अलग अलग रंगो के फूलों से महकने लगी। एक दिन, अपने पति ही भांति, शांति देवी भी पूजा घर में बैठीं तो वहीं लुढ़क गई। सुमन-सुनीता अपने अपने काम में व्यस्त थी, की अचानक सुरेश के रोने की आवाज़ आयीं। दोनों, देवरानी जिठानी, अपना हाथ का काम छोड़ कर उस आवाज़ की दिशा में गईं; तो देखा की,  की शांति देवी एक हाथ में मनकों की माला और दूसरा हाथ उनके पौत्र के हाथ में है और वो वहीं पूजा घर में गिरी हुई हैं। सुरेश, दादी की इस अवस्था से अंजान, दादी के हाथ में फंसे अपने हाथ को निकालने की कोशिश असफल होने पर, रो रहा था। सुमन ने झट से शांति देवी के हाथ से अपने पुत्र का हाथ निकाला और उनका सर अपनी गोद में रख लिया, और सुनीता ने पास रखा गंगा-जल से शांति देवी के मुँह पर छींटे दे कर उन्हे होश में लाने का असफल प्रयास करने लगीं।

“छोटी, अम्मा तो आँखें ही नहीं खोल रहीं, क्या करें” सुमन ने घबराते हुए सुनीता की ओर हमेशा की तरह देखा और सुनीता जो इस घर में उनकी हर समस्या और सवाल का जवाब थी, हमेशा की तरह बिना धैर्य खोये कहा, “आप घबराओ नहीं जिज्जी, बंसल डॉक्टर की दुकान तो खुल ही गयी होगी, मैं अभी जा कर उन्हे बुला लाती हूँ” और यह कह कर वो सुमन के किसी भी जवाब का इंतज़ार किए बिना, बाहर डौक्टर बंसल को बुलाने भागती हुई चली गयी। तब तक सुमन बारी बारी से कभी अपनी प्यारी अम्मा के हाथ तो कभी पांव मसल रही थी और साथ ही साथ उन्हे आवाज भी देती जा रही थी। सुरेश इस सारी हलचल से और ज़्यादा घबरा गया और एक कोने में जाकर अपने मुँह में अंगूठा दे कर बैठ गया।

कुछ ही पल में सुनीता, डॉ बंसल के साथ लगभग भागती हुई आ गयी, सुमन ने क्रतज्ञता और आँसू भरी आंखो से सुनीता का धन्यवाद करा, और सुनीता ने भी उन्हे बड़ी प्यार भरी नज़रों से, न घबराने का आश्वासन दिया।

अपने कानों से, स्टेथोस्कोप निकलते हुए डॉ बंसल ने बड़ी निराशा से अपनी गरदन हिला कर शांति देवी के स्वर्गवासी होने की सूचना सुमन-सुनीता को दी जो बड़ी आस भरी नज़रों से डॉ बंसल की ओर देख रहीं थी ।

एक सन्नाटा सा पसर गया वहाँ पर , डॉ बंसल भरी कदमों से, सर झुकाये, अपना सामान समेट कर वहाँ से चले गए। उनके जाते ही घर के दरवाजे से लग कर खड़ा, सिपाही राम भाग कर अंदर आ गया और आते ही सारा माजरा समझ गया।

सिपाही राम की छोटी सी दुकान थी, जिसमे छोटी बच्चों की गोली-टौफ़ी, किताब, पेंसिल से लेकर, घर में औरतों के बनाव-सिंगार की रोज़ काम आने वाली चीजें भरी हुई थीं। द्वारिका बाबू की पिता के जमाने में, सिपाही राम के पिता ने बच्चों के लिए लेमन जूस की गोलियों की शीशी एक पटरे पर लेकर बैठते थे जिसे धीरे धीरे एक दुकान में बादल लिया और सिपाही राम ने उस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, छोटी लेकिन एक भरी हुई दुकान में बदल दिया। घर के दरवाजे से लगी हुई दुकान की वजह से, उसका इस घर के सदस्यों के साथ बहुत लगाव था, लेकिन वो अपनी सीमा पहचानता था इसलिए कभी घर की चौखट नहीं लांघी।

आज सुनीता को घबरा कर बाहर जाते हुए उसने देखा तो अपने आप को रोक नहीं पाया। दुकान को यूं ही छोड़ कर वो बाहर गली में खड़ा कश्मकश में डूबा क्या करूँ और क्या न करूँ, सोच ही रहा था, की सुनीता, डॉ बंसल से साथ वापस आती दिखाई दी। सिपाही राम, बिना कुछ बोले उन दोनों के पीछे पीछे घर में आ गया और वहाँ का सारा हाल अपनी आँखों से देखा और तुरंत अपना दायित्व अपने आप ही स्थिर कर लिया।

आँगन में खड़े खड़े ही उसने कहा “आप घबराओ नहीं भाभी, में अभी दद्दा और मँझले बाबू को खबर करता हूँ” यह कह कर सिपाही राम लपकता हुआ बाहर चला गया।

तभी सुनीता को सुरेश का खयाल आया। घबराई हुई अपनी सवाली नज़रों को चारो तरफ घुमाया और देखा की सुरेश एक कोने में कुछ घबराया सा, कुछ सहमा सा, मुँह में अंगूठा दिये, चुप चाप बैठा है और यह सारी हलचल देख रहा है। सुनीता ने दौड़ कर उसे अपनी गोद में उठा लिया और अपने आँचल से सुरेश के गालों पर सूख गए आँसू के निशान साफ करने की असफल कोशिश करने लगी।

सुमन अपनी गोद में शांति देवी का सर रखे चुप-चाप आँसू बहा रही थी और अन्तर्मन में पहले दिन, जब शांति देवी उसे अपनी सुपुत्र के लिए देखने आयीं थीं तब से लेकर आज तक का सबकुछ एक फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र गया।

“हमें आपकी बेटी पसंद है, और उसे अपने बड़े बेटे, नरेश की जीवन-संगिनी बनाना चाहते हैं, आपका क्या खयाल है” शांति देवी ने बहुत प्यार, लाड़ और दुलार भरी नज़रों से सुमन को निहारते हुए उसके पिता, मथुरा दास जी से पूछा।

मथुरा दास, इंश्योरंस कंपनी के मामूली से क्लर्क, पाँच बेटियों में सबसे छोटी और लाड़ली बेटी, जो शिक्षा और गुणों में तो अद्वित्य थी लेकिन भगवान ने सुंदरता देने में थोड़ी कंजूसी कर दी थी। जहां सुमन के अन्य बहनें सौंदर्य की खान थीं वहीं सुमन, सांवले रंग की साधारण सी लड़की थी। लेकिन शांति देवी की पारखी नज़रों ने सुमन के अंदर छुपी सुंदरता और गुणों को एक ही नज़र में देख लिया और मन ही मन उसे अपनी घर की लक्ष्मी बनाने का निर्णय ले लिया। मथुरा दास जी ने आभार और क्रतज्ञता से भरी आँखों से, बिना माँ की अपनी बेटी की ओर देखा तो उसे भी सर झुकाये हुए पाया। “जी, यह तो आपकी ही अमानत है, मैं कौन होता हूँ उसे अपने घर रोकने वाला, जब चाहें उसे अपने घर की शोभा बनाने के लिए ले जाएँ” मथुरा दास ने अपनी उमड़ती भावनाओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए और हाथ जोड़े हुए कहा। इस तरह सुमन नरेश की पत्नी बन इस परिवार की वंशबेल बढ़ाने का माध्यम बन गयी। सुमन को शांति देवी ने अपनी जायी बेटी से भी ज़्यादा प्यार और विश्वास दिया। शायद सुमन के रूप में उन्हे अपनी मानस पुत्री “मुनिया” दिखाई देती थी। सुमन को भी जिंदगी में पहली बार माँ के रूप और प्यार का अहसास हुआ और उसने शांति देवी के प्यार और विश्वास का जवाब आदर और सम्मान के साथ दिया। द्वारिका प्रसाद भी सुमन को ‘बहू-बेटी’ कहते न थकते थे और जब एक वर्ष के भीतर ही सुमन ने उनकी गोद में सुरेश के रूप में एक फ़ूल सौप दिया, तब तो व्रद्ध पति-पत्नी की बरसों की संचित अभिलाषा ही पूरी हो गयी। विवाह से लेकर आज तक सुमन को एक भी पल ऐसा नहीं याद आता जब उसकी सास या ससुर ने उसे दूसरे घर से आने का अहसास करवाया हो। यही प्यार और सम्मान, सुनीता को भी बराबर से मिला। शांति देवी ने दोनों पुत्रवधुओं को अपनी दो बेटियों की तरह प्यार और दुलार दिया। मुन्ने बाबू तो कभी कभी हँस के शांति देवी को उलहाना भी दे देते थे की “अम्मा, कहीं तुम हम तीनों भाइयों को किसी मेले से तो नहीं बादल आई हो। जब देखि बड़ी भाभी और छोटी भाभी का ही पक्ष रखती हो, हर बात में।” और सुमन-सुनीता, सिर झुकाये, होठों ही होठों में हँस कर अम्मा की ओर देखती थीं, और अम्मा वो तो हँस कर कहती थीं, “बेटा, तुम क्या जानो, ब्याह कर आई लड़की और आँगन में लगा तुलसी का पौधा एक समान होता है। दोनों को अगर प्यार, आदर और सम्मान का खाद पानी ठीक मात्र में न मिले तो इन्हे सूख कर मुरझा जाने में वक़्त नहीं लगता। और फिर मुझे तो भगवान के कृपा से लक्ष्मी-सरस्वती जैसी बहुएँ मिली हैं, मैं उनका निरादर कैसे कर सकती हूँ।” सुमन-सुनीता उनकी इस बात पर निहाल हो जातीं थीं। वही माँ-स्वरूपा सास, आज निर्जीव अवस्था में सुमन की गोद में लेटी थीं।

सुनीता, सुरेश को गोद में उठाये अपनी माँ समान सास के चेहरे को देख रही थी जिसपर आज भी वही ममता और प्यार था, जो उनके चेहरे पर तब था, जब वो उसे देखने पहले बार आयीं थी।

अंधेरे में क्यूँ बैठी हो,—हेमा के पति हरीश ने कमरे में घुसते ही कहा…….

मेरी कहानी

सामान्य

आज सोचा चलो कुछ लिख ही लिया जाए। जो कुछ बीता, उसका एक लेखा-जोखा देखा जाए, उस बनिए की तरह जो अपनी दुकान बड़ाने से पहले अपना दिन भर का हिसाब-किताब देख कर नफे-नुकसान का अंदाजा लगाता है। लेकिन में तो शायद ये भी न कर सकूँ, क्यूंकी, इस ज़िंदगी में कभी भी नफे-नुकसान का सही सही हिसाब किताब रखना इतना आसान नहीं होता, या शायद यह कहूँ की लगभग असंभव ही होता है तो कुछ गलत नहीं होगा।

हेमा, यह नाम रखते समय शायद माता-पिता ने यह न सोचा होगा, की ज़िंदगी इस नाम का कितना सार्थक अर्थ देगी, बस मन में आया और रख दिया। परिवार की सबसे बड़ी संतान और वो भी एक लड़की, शायद 1935 के युग में यह कोई खास खुशी की बात नहीं थी, फिर भी क्रांतिकारी विचारों वाले मेरे पिताजी ने बहुत धूम धाम से मेरे जन्म की खुशी को सारे समाज के साथ मनाया। बड़े दद्दा ने , जो पूरे परिवार के मुखिया भी थे, मुन्ने बाबू के इस कदम को कोई खास सहमति नहीं दी, लेकिन अपनी नाक को ऊंचा रखने के लिए, कुछ कहा भी नहीं, क्यूँ न हो, मुन्ने बाबू उनके लाडले और विद्रोही पुत्र जो थे। अपने जनम से लेकर आज तक जो कुछ भी किया, विद्रोह ही तो था। अरे…..ये तो मैं, अपनी कहानी कहते कहते, अपने पिता के बचपन तक पहुँच गयी; लेकिन शायद ऐसा करना जरूरी है। तो चलिये, यही सही, पहले मुन्ने बाबू के बारे में ही कुछ जान लिया जाए।

द्वारिका प्रसाद के परिवार में दो चाँद-बड़के, मँझले भाइयों के रूप में आँगन में उतर चुके थे। शांति देवी यथा नाम तथा गुण को सार्थक करती हुई, सुबह से शाम तक बड़े कुनबे में सबकी फ़रमाइशें हँसते हँसते पूरी करने में ही अपना धर्म समझती थीं। दो पुत्रों की माता, स्वामी की गरिमामई संगनी, सास-ससुर की आज्ञाकारिणि बहू और जेठानी-देवरानी की सखी सहेली, ननद देवरों का दुलार करने में ही समय बिता देतीं थीं। फिर भी एक सलोनी राजकुमारी को अपने हाथों से सजा कर डोली में बैठाने की अनोखी इच्छा मन में हिलोरे लेती रहती थी। स्वामी, ऐसा नहीं की अपनी संगनी की मन की इच्छा समझते नहीं थे, लेकिन बस मन ही मन भगवान से उसकी ओर से प्रार्थना करते थे। अबकी बार जब शांति देवी की कोख में अंकुर फूटा तो पति-पत्नी नें मन ही मन अपनी मुनिया के सपने सजाने शुरू कर दिये, जैसे पूरा विश्वास था, की इस बार तो भगवान उनकी मनोकमा पूरी कर ही देंगे। सबसे छुपा कर दोनों ने एक अलग ही दुनिया बसा ली जिसमें उनकी प्यारी मुनिया चहचहाती हुई कभी अपने बड़के भैया से दुलार करवा रही है तो कभी मँझले भैया से गुड़िया की शादी के लिए मिठाई के दोने की मांग कर रही है। द्वारिका बाबू ने तो मन ही मन अपने समधी भी ढूंढ लिए और वारिच्छा में साइकल देने के लिए, कहाँ से कितने पैसे लगेंगे, सब सोच लिया, मतलब, जन्म से विवाह तक का सारा हिसाब-किताब तैयार था, बस मुनिया का इस दुनिया में आने का इंतज़ार था।

अंततः, शांति देवी, मन में उमंगों का सागर लिए सौर-गृह में प्रवेश कर गईं। द्वारिका बाबू, दाई का नेग लिए आकुल-व्याकुल, दालान में इधर से उधर घूम रहे थे। ‘दद्दा, ललना भौजी देने वाली हैं और दर्द से तुम छटपटा रहे हो, वाह रे पत्नी प्रेम’ दालान के दूसरे कोने में बैठे छोटे भाई ने वही से हँसते हुए हांक लगाई।’ ‘अरे नहीं छोटे, वो तो रात का खाना कुछ हजम नहीं हुआ, पेट में अफरा सा हो गया है, बस और कुछ नहीं’ द्वारिका बाबू कुछ झेंपते हुए से बोले। और तभी अंदर के दरवाजे की कड़ी खुली और खुशी से गमकती दाई बाहर आई, “बधाई हो बधाई बाबू जी, अबकी बार बिना तगड़ी के काम नहीं चलेगा,”मन्नों दाई ने हुलसते हुए कहा। अरे हाँ हाँ , ले लेना, द्वारिका बाबू ने भी उसी स्वर में जवाब दिया, और अपनी मुनिया को दुलार करने के लिए हाथ पसार दिये। लो बाबू, चाँद सा बेटा दिया है, बहुजी ने, मन्नों दाई ने खुशी की रौ में बहते हुए कहा, और झट से इनाम लेने के लिए हाथ आगे कर दिये। द्वारिका बाबू के तो जैसे समझ ही आया, खुशी में पागल हो जाएँ या फिर भगवान से मुनिया को न देने की शिकायत करें। सारा घर जैसे उत्सव माना रहा था, द्वारिका बाबू की माँ  तो अपनी लाड़ली बहू की बलाएँ लेते नहीं थक रहीं थीं।

लेकिन इस उत्सव की खुशी से अछूते दो मन अपने अपने मन में भगवान से अपनी गलती का कारण पूछ रहे थे। तो इस प्रकार मुन्ने बाबू और सबके दुलारे मुन्ने भैया का जनम सबके लिए खुशी और उनके माता-पिता के लिए उदासी का कारण था। लेकिन द्वारिका बाबू और शांति देवी ने अपनी इच्छा को अगली बार के लिए भगवान को सौंप कर मुन्ने बाबू को वो सारा लाड़ दुलार दे दिया जो उन्होने संचित कर रखा था। शायद इसी लिए मुन्ने बाबू, सबसे हटकर काम करने के लिए बचपन से ही कटिबद्ध थे। दुलारे मुन्ने भैया, बचपन से ही कुछ अलग स्वभाव के थे। अलग ही नहीं, वो तो बिलकुल ही अलग स्वभाव के थे।

जहां बड़के और मँझले भैया, पढ़ाई में मास्टर जी की आँखों के तारा थे वहीं दूसरी ओर, मुन्ने बाबू, अपने बाजे के कारण गली के सभी साथियों के दुलारे थे। गली का कोई भी त्योहार हो या बच्चे का मुंडन, मुन्ने बाबू के गीत के बिना तो पूरा ही नहीं होता था। अपनी गली के मुकेश थे मुन्ने बाबू। माता-पिता भी लाड़ के कारण कुछ ज्यादा कह नहीं पाते थे, बस दादा के डर की वजह से घर में कुछ नहीं होता था नहीं तो गली का कौन सा घर ऐसा था, जहां का फंकशन मुन्ने बाबू की सधी हुई आवाज के बिना पूरा हुआ हो।

मंथर गति से चलते समय ने बहुत कुछ दिखा दिया इस परिवार को। द्वारिका बाबू, एक दिन दफ्तर से घर लौट कर जो सोये तो फिर उठे ही नहीं और ……..