मेरी कहानी

सामान्य

आज सोचा चलो कुछ लिख ही लिया जाए। जो कुछ बीता, उसका एक लेखा-जोखा देखा जाए, उस बनिए की तरह जो अपनी दुकान बड़ाने से पहले अपना दिन भर का हिसाब-किताब देख कर नफे-नुकसान का अंदाजा लगाता है। लेकिन में तो शायद ये भी न कर सकूँ, क्यूंकी, इस ज़िंदगी में कभी भी नफे-नुकसान का सही सही हिसाब किताब रखना इतना आसान नहीं होता, या शायद यह कहूँ की लगभग असंभव ही होता है तो कुछ गलत नहीं होगा।

हेमा, यह नाम रखते समय शायद माता-पिता ने यह न सोचा होगा, की ज़िंदगी इस नाम का कितना सार्थक अर्थ देगी, बस मन में आया और रख दिया। परिवार की सबसे बड़ी संतान और वो भी एक लड़की, शायद 1935 के युग में यह कोई खास खुशी की बात नहीं थी, फिर भी क्रांतिकारी विचारों वाले मेरे पिताजी ने बहुत धूम धाम से मेरे जन्म की खुशी को सारे समाज के साथ मनाया। बड़े दद्दा ने , जो पूरे परिवार के मुखिया भी थे, मुन्ने बाबू के इस कदम को कोई खास सहमति नहीं दी, लेकिन अपनी नाक को ऊंचा रखने के लिए, कुछ कहा भी नहीं, क्यूँ न हो, मुन्ने बाबू उनके लाडले और विद्रोही पुत्र जो थे। अपने जनम से लेकर आज तक जो कुछ भी किया, विद्रोह ही तो था। अरे…..ये तो मैं, अपनी कहानी कहते कहते, अपने पिता के बचपन तक पहुँच गयी; लेकिन शायद ऐसा करना जरूरी है। तो चलिये, यही सही, पहले मुन्ने बाबू के बारे में ही कुछ जान लिया जाए।

द्वारिका प्रसाद के परिवार में दो चाँद-बड़के, मँझले भाइयों के रूप में आँगन में उतर चुके थे। शांति देवी यथा नाम तथा गुण को सार्थक करती हुई, सुबह से शाम तक बड़े कुनबे में सबकी फ़रमाइशें हँसते हँसते पूरी करने में ही अपना धर्म समझती थीं। दो पुत्रों की माता, स्वामी की गरिमामई संगनी, सास-ससुर की आज्ञाकारिणि बहू और जेठानी-देवरानी की सखी सहेली, ननद देवरों का दुलार करने में ही समय बिता देतीं थीं। फिर भी एक सलोनी राजकुमारी को अपने हाथों से सजा कर डोली में बैठाने की अनोखी इच्छा मन में हिलोरे लेती रहती थी। स्वामी, ऐसा नहीं की अपनी संगनी की मन की इच्छा समझते नहीं थे, लेकिन बस मन ही मन भगवान से उसकी ओर से प्रार्थना करते थे। अबकी बार जब शांति देवी की कोख में अंकुर फूटा तो पति-पत्नी नें मन ही मन अपनी मुनिया के सपने सजाने शुरू कर दिये, जैसे पूरा विश्वास था, की इस बार तो भगवान उनकी मनोकमा पूरी कर ही देंगे। सबसे छुपा कर दोनों ने एक अलग ही दुनिया बसा ली जिसमें उनकी प्यारी मुनिया चहचहाती हुई कभी अपने बड़के भैया से दुलार करवा रही है तो कभी मँझले भैया से गुड़िया की शादी के लिए मिठाई के दोने की मांग कर रही है। द्वारिका बाबू ने तो मन ही मन अपने समधी भी ढूंढ लिए और वारिच्छा में साइकल देने के लिए, कहाँ से कितने पैसे लगेंगे, सब सोच लिया, मतलब, जन्म से विवाह तक का सारा हिसाब-किताब तैयार था, बस मुनिया का इस दुनिया में आने का इंतज़ार था।

अंततः, शांति देवी, मन में उमंगों का सागर लिए सौर-गृह में प्रवेश कर गईं। द्वारिका बाबू, दाई का नेग लिए आकुल-व्याकुल, दालान में इधर से उधर घूम रहे थे। ‘दद्दा, ललना भौजी देने वाली हैं और दर्द से तुम छटपटा रहे हो, वाह रे पत्नी प्रेम’ दालान के दूसरे कोने में बैठे छोटे भाई ने वही से हँसते हुए हांक लगाई।’ ‘अरे नहीं छोटे, वो तो रात का खाना कुछ हजम नहीं हुआ, पेट में अफरा सा हो गया है, बस और कुछ नहीं’ द्वारिका बाबू कुछ झेंपते हुए से बोले। और तभी अंदर के दरवाजे की कड़ी खुली और खुशी से गमकती दाई बाहर आई, “बधाई हो बधाई बाबू जी, अबकी बार बिना तगड़ी के काम नहीं चलेगा,”मन्नों दाई ने हुलसते हुए कहा। अरे हाँ हाँ , ले लेना, द्वारिका बाबू ने भी उसी स्वर में जवाब दिया, और अपनी मुनिया को दुलार करने के लिए हाथ पसार दिये। लो बाबू, चाँद सा बेटा दिया है, बहुजी ने, मन्नों दाई ने खुशी की रौ में बहते हुए कहा, और झट से इनाम लेने के लिए हाथ आगे कर दिये। द्वारिका बाबू के तो जैसे समझ ही आया, खुशी में पागल हो जाएँ या फिर भगवान से मुनिया को न देने की शिकायत करें। सारा घर जैसे उत्सव माना रहा था, द्वारिका बाबू की माँ  तो अपनी लाड़ली बहू की बलाएँ लेते नहीं थक रहीं थीं।

लेकिन इस उत्सव की खुशी से अछूते दो मन अपने अपने मन में भगवान से अपनी गलती का कारण पूछ रहे थे। तो इस प्रकार मुन्ने बाबू और सबके दुलारे मुन्ने भैया का जनम सबके लिए खुशी और उनके माता-पिता के लिए उदासी का कारण था। लेकिन द्वारिका बाबू और शांति देवी ने अपनी इच्छा को अगली बार के लिए भगवान को सौंप कर मुन्ने बाबू को वो सारा लाड़ दुलार दे दिया जो उन्होने संचित कर रखा था। शायद इसी लिए मुन्ने बाबू, सबसे हटकर काम करने के लिए बचपन से ही कटिबद्ध थे। दुलारे मुन्ने भैया, बचपन से ही कुछ अलग स्वभाव के थे। अलग ही नहीं, वो तो बिलकुल ही अलग स्वभाव के थे।

जहां बड़के और मँझले भैया, पढ़ाई में मास्टर जी की आँखों के तारा थे वहीं दूसरी ओर, मुन्ने बाबू, अपने बाजे के कारण गली के सभी साथियों के दुलारे थे। गली का कोई भी त्योहार हो या बच्चे का मुंडन, मुन्ने बाबू के गीत के बिना तो पूरा ही नहीं होता था। अपनी गली के मुकेश थे मुन्ने बाबू। माता-पिता भी लाड़ के कारण कुछ ज्यादा कह नहीं पाते थे, बस दादा के डर की वजह से घर में कुछ नहीं होता था नहीं तो गली का कौन सा घर ऐसा था, जहां का फंकशन मुन्ने बाबू की सधी हुई आवाज के बिना पूरा हुआ हो।

मंथर गति से चलते समय ने बहुत कुछ दिखा दिया इस परिवार को। द्वारिका बाबू, एक दिन दफ्तर से घर लौट कर जो सोये तो फिर उठे ही नहीं और ……..

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