मेरी कहानी—दूसरी किस्त,

सामान्य

मंथर गति से चलते समय ने बहुत कुछ दिखा दिया इस परिवार को। द्वारिका बाबू, एक दिन दफ्तर से घर लौट कर जो सोये तो फिर उठे ही नहीं और शांति देवी बड़के पुत्र की पत्नी और उनकी आज्ञाकारिणि पुत्रवधू सुमन और पौत्र सुरेश के साथ अपना समय व्यतीत करने लगीं।

शांति देवी की बड़ी पुत्रवधू सुमन, बिलकुल उनकी प्रतिछवि थीं। आचार-विचार और व्यवहार, में सुमन, शांति देवी की परंपरा को आगे ले जाने वाली सिद्ध हुई। नरेश, उनके बड़े पुत्र भी अपने पिता, द्वारिकाप्रसाद के ही सच्चे वारिस बने। इस तरह, वंश के किरदार तो बदल गए लेकिन संस्कार नहीं बदले।

मँझले बाबू, यानि, महेश भी बहुत कुछ अपने भाई से ही मिलते जुलते थे। बस अंतर था तो थोड़ा बहुत विचारों का था। देश में आज़ादी के बाद, समाज सुधार की जो नयी हवा चली थी, उससे महेश भी अछूते नहीं थे, लेकिन संस्कारों की डोर इतनी मजबूत थी की वो अपने परिवार और माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर कुछ करने की हिम्मत नहीं कर पाये। बस कॉलेज में जाकर इंजीनेरिंग की पढ़ाई करी और उसी समय, गली में आते जाते, कन्या महाविध्यालय के छात्राओं के झुंड की सबसे सुंदर लड़की को चोरी चोरी देखते थे। साथ में इस बात का भी डर था की कोई जान पहचान वाला उनकी इस हरकत को ताड़ न ले नहीं तो उनके बड़े भैया, जिनहे वो प्यार और आदर से बदके दद्दा कहते थे, बहुत दुख होगा।

हाँ, यहाँ एक बात आपको बता दें,  नरेश और महेश, दो जिस्म और एक जान थे। महेश के लिए उनके दद्दा की इच्छा , भगवान की ओर से आया हुआ आदेश होता था , जिसे वो हँस कर मान लेते थे। वहीं, नरेश भी अपने मँझले को अपने पुत्र समान स्नेह करते थे। शांति देवी तो हँस कर सबसे यही कहती थीं, की, महेश तो गलती से उनकी कोख में आ गए, नहीं तो माँ तो उनकी सुमन ही है। इसी परंपरा को आगे करते हुए, नरेश भी सुरेश यानि अपने भतीजे को, अपना पुत्र और दोस्त मानते थे। नरेश-सुरेश की युगल जोड़ी तो सारे मोहल्ले में देखने लायक थी।

जबसे सुरेश बाबू ने इस दुनिया में आंखे खोली, तो वो उनके चाचा यानि, नरेश की ही गोद थी। बस उस पल से नरेश ने सुरेश को अपनी गोद से तब ही उतारा जब उनका दाखिला, पास के मोहल्ले में एक प्राइमिरी स्कूल में हो गया। तब उनकी मजबूरी थी की वो अपने दोस्त के साथ स्कूल नहीं जा सकते थे, नहीं तो वो सुरेश को अपनी नज़र से ओझल नहीं करते।

समय की गति को तो कोई पकड़ नहीं सका, एक दिन सुनीता, अपनी शिक्षा और सुंदरता की रोशनी के साथ, नरेश की जिंदगी में आ गईं। भाइयों की ही तरह, सुमन-सुनीता भी दो बहनो की तरह आपस में घुल मिल गईं। कोई कह ही नहीं सकता था, की वो दोनों अलग अलग परिवार और परिवेश से आयीं हैं।

इस तरह, शांति देवी की छोटी सी फुलवारी, अलग अलग रंगो के फूलों से महकने लगी। एक दिन, अपने पति ही भांति, शांति देवी भी पूजा घर में बैठीं तो वहीं लुढ़क गई। सुमन-सुनीता अपने अपने काम में व्यस्त थी, की अचानक सुरेश के रोने की आवाज़ आयीं। दोनों, देवरानी जिठानी, अपना हाथ का काम छोड़ कर उस आवाज़ की दिशा में गईं; तो देखा की,  की शांति देवी एक हाथ में मनकों की माला और दूसरा हाथ उनके पौत्र के हाथ में है और वो वहीं पूजा घर में गिरी हुई हैं। सुरेश, दादी की इस अवस्था से अंजान, दादी के हाथ में फंसे अपने हाथ को निकालने की कोशिश असफल होने पर, रो रहा था। सुमन ने झट से शांति देवी के हाथ से अपने पुत्र का हाथ निकाला और उनका सर अपनी गोद में रख लिया, और सुनीता ने पास रखा गंगा-जल से शांति देवी के मुँह पर छींटे दे कर उन्हे होश में लाने का असफल प्रयास करने लगीं।

“छोटी, अम्मा तो आँखें ही नहीं खोल रहीं, क्या करें” सुमन ने घबराते हुए सुनीता की ओर हमेशा की तरह देखा और सुनीता जो इस घर में उनकी हर समस्या और सवाल का जवाब थी, हमेशा की तरह बिना धैर्य खोये कहा, “आप घबराओ नहीं जिज्जी, बंसल डॉक्टर की दुकान तो खुल ही गयी होगी, मैं अभी जा कर उन्हे बुला लाती हूँ” और यह कह कर वो सुमन के किसी भी जवाब का इंतज़ार किए बिना, बाहर डौक्टर बंसल को बुलाने भागती हुई चली गयी। तब तक सुमन बारी बारी से कभी अपनी प्यारी अम्मा के हाथ तो कभी पांव मसल रही थी और साथ ही साथ उन्हे आवाज भी देती जा रही थी। सुरेश इस सारी हलचल से और ज़्यादा घबरा गया और एक कोने में जाकर अपने मुँह में अंगूठा दे कर बैठ गया।

कुछ ही पल में सुनीता, डॉ बंसल के साथ लगभग भागती हुई आ गयी, सुमन ने क्रतज्ञता और आँसू भरी आंखो से सुनीता का धन्यवाद करा, और सुनीता ने भी उन्हे बड़ी प्यार भरी नज़रों से, न घबराने का आश्वासन दिया।

अपने कानों से, स्टेथोस्कोप निकलते हुए डॉ बंसल ने बड़ी निराशा से अपनी गरदन हिला कर शांति देवी के स्वर्गवासी होने की सूचना सुमन-सुनीता को दी जो बड़ी आस भरी नज़रों से डॉ बंसल की ओर देख रहीं थी ।

एक सन्नाटा सा पसर गया वहाँ पर , डॉ बंसल भरी कदमों से, सर झुकाये, अपना सामान समेट कर वहाँ से चले गए। उनके जाते ही घर के दरवाजे से लग कर खड़ा, सिपाही राम भाग कर अंदर आ गया और आते ही सारा माजरा समझ गया।

सिपाही राम की छोटी सी दुकान थी, जिसमे छोटी बच्चों की गोली-टौफ़ी, किताब, पेंसिल से लेकर, घर में औरतों के बनाव-सिंगार की रोज़ काम आने वाली चीजें भरी हुई थीं। द्वारिका बाबू की पिता के जमाने में, सिपाही राम के पिता ने बच्चों के लिए लेमन जूस की गोलियों की शीशी एक पटरे पर लेकर बैठते थे जिसे धीरे धीरे एक दुकान में बादल लिया और सिपाही राम ने उस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, छोटी लेकिन एक भरी हुई दुकान में बदल दिया। घर के दरवाजे से लगी हुई दुकान की वजह से, उसका इस घर के सदस्यों के साथ बहुत लगाव था, लेकिन वो अपनी सीमा पहचानता था इसलिए कभी घर की चौखट नहीं लांघी।

आज सुनीता को घबरा कर बाहर जाते हुए उसने देखा तो अपने आप को रोक नहीं पाया। दुकान को यूं ही छोड़ कर वो बाहर गली में खड़ा कश्मकश में डूबा क्या करूँ और क्या न करूँ, सोच ही रहा था, की सुनीता, डॉ बंसल से साथ वापस आती दिखाई दी। सिपाही राम, बिना कुछ बोले उन दोनों के पीछे पीछे घर में आ गया और वहाँ का सारा हाल अपनी आँखों से देखा और तुरंत अपना दायित्व अपने आप ही स्थिर कर लिया।

आँगन में खड़े खड़े ही उसने कहा “आप घबराओ नहीं भाभी, में अभी दद्दा और मँझले बाबू को खबर करता हूँ” यह कह कर सिपाही राम लपकता हुआ बाहर चला गया।

तभी सुनीता को सुरेश का खयाल आया। घबराई हुई अपनी सवाली नज़रों को चारो तरफ घुमाया और देखा की सुरेश एक कोने में कुछ घबराया सा, कुछ सहमा सा, मुँह में अंगूठा दिये, चुप चाप बैठा है और यह सारी हलचल देख रहा है। सुनीता ने दौड़ कर उसे अपनी गोद में उठा लिया और अपने आँचल से सुरेश के गालों पर सूख गए आँसू के निशान साफ करने की असफल कोशिश करने लगी।

सुमन अपनी गोद में शांति देवी का सर रखे चुप-चाप आँसू बहा रही थी और अन्तर्मन में पहले दिन, जब शांति देवी उसे अपनी सुपुत्र के लिए देखने आयीं थीं तब से लेकर आज तक का सबकुछ एक फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र गया।

“हमें आपकी बेटी पसंद है, और उसे अपने बड़े बेटे, नरेश की जीवन-संगिनी बनाना चाहते हैं, आपका क्या खयाल है” शांति देवी ने बहुत प्यार, लाड़ और दुलार भरी नज़रों से सुमन को निहारते हुए उसके पिता, मथुरा दास जी से पूछा।

मथुरा दास, इंश्योरंस कंपनी के मामूली से क्लर्क, पाँच बेटियों में सबसे छोटी और लाड़ली बेटी, जो शिक्षा और गुणों में तो अद्वित्य थी लेकिन भगवान ने सुंदरता देने में थोड़ी कंजूसी कर दी थी। जहां सुमन के अन्य बहनें सौंदर्य की खान थीं वहीं सुमन, सांवले रंग की साधारण सी लड़की थी। लेकिन शांति देवी की पारखी नज़रों ने सुमन के अंदर छुपी सुंदरता और गुणों को एक ही नज़र में देख लिया और मन ही मन उसे अपनी घर की लक्ष्मी बनाने का निर्णय ले लिया। मथुरा दास जी ने आभार और क्रतज्ञता से भरी आँखों से, बिना माँ की अपनी बेटी की ओर देखा तो उसे भी सर झुकाये हुए पाया। “जी, यह तो आपकी ही अमानत है, मैं कौन होता हूँ उसे अपने घर रोकने वाला, जब चाहें उसे अपने घर की शोभा बनाने के लिए ले जाएँ” मथुरा दास ने अपनी उमड़ती भावनाओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए और हाथ जोड़े हुए कहा। इस तरह सुमन नरेश की पत्नी बन इस परिवार की वंशबेल बढ़ाने का माध्यम बन गयी। सुमन को शांति देवी ने अपनी जायी बेटी से भी ज़्यादा प्यार और विश्वास दिया। शायद सुमन के रूप में उन्हे अपनी मानस पुत्री “मुनिया” दिखाई देती थी। सुमन को भी जिंदगी में पहली बार माँ के रूप और प्यार का अहसास हुआ और उसने शांति देवी के प्यार और विश्वास का जवाब आदर और सम्मान के साथ दिया। द्वारिका प्रसाद भी सुमन को ‘बहू-बेटी’ कहते न थकते थे और जब एक वर्ष के भीतर ही सुमन ने उनकी गोद में सुरेश के रूप में एक फ़ूल सौप दिया, तब तो व्रद्ध पति-पत्नी की बरसों की संचित अभिलाषा ही पूरी हो गयी। विवाह से लेकर आज तक सुमन को एक भी पल ऐसा नहीं याद आता जब उसकी सास या ससुर ने उसे दूसरे घर से आने का अहसास करवाया हो। यही प्यार और सम्मान, सुनीता को भी बराबर से मिला। शांति देवी ने दोनों पुत्रवधुओं को अपनी दो बेटियों की तरह प्यार और दुलार दिया। मुन्ने बाबू तो कभी कभी हँस के शांति देवी को उलहाना भी दे देते थे की “अम्मा, कहीं तुम हम तीनों भाइयों को किसी मेले से तो नहीं बादल आई हो। जब देखि बड़ी भाभी और छोटी भाभी का ही पक्ष रखती हो, हर बात में।” और सुमन-सुनीता, सिर झुकाये, होठों ही होठों में हँस कर अम्मा की ओर देखती थीं, और अम्मा वो तो हँस कर कहती थीं, “बेटा, तुम क्या जानो, ब्याह कर आई लड़की और आँगन में लगा तुलसी का पौधा एक समान होता है। दोनों को अगर प्यार, आदर और सम्मान का खाद पानी ठीक मात्र में न मिले तो इन्हे सूख कर मुरझा जाने में वक़्त नहीं लगता। और फिर मुझे तो भगवान के कृपा से लक्ष्मी-सरस्वती जैसी बहुएँ मिली हैं, मैं उनका निरादर कैसे कर सकती हूँ।” सुमन-सुनीता उनकी इस बात पर निहाल हो जातीं थीं। वही माँ-स्वरूपा सास, आज निर्जीव अवस्था में सुमन की गोद में लेटी थीं।

सुनीता, सुरेश को गोद में उठाये अपनी माँ समान सास के चेहरे को देख रही थी जिसपर आज भी वही ममता और प्यार था, जो उनके चेहरे पर तब था, जब वो उसे देखने पहले बार आयीं थी।

अंधेरे में क्यूँ बैठी हो,—हेमा के पति हरीश ने कमरे में घुसते ही कहा…….

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