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मेरी कहानी……तीसरी किस्त…

सामान्य

अंधेरे में क्यूँ बैठी हो,—हेमा के पति हरीश ने कमरे में घुसते ही कहा। हेमा ने चौंक कर गरदन उठाई तो देखा, कमरे में कब से अंधेरे ने अपना अधिकार जमा लिया है और वो अतीत की गुफा में बैठी ही रह गयी।“अरे आप ऑफिस से कब आए, ज़रा आवाज तो देते, में बाहर ही आ जाती।” हेमा ने झेंपते हुए और अपने आप को समेटते हुए कहा। “तो अब आ जाओ न, मैंने सोचा तुम कुछ सोच रही हो तो क्यूँ तुम्हें परेशान करूँ”, हरीश ने मुसकुराते हुए और अपने कपड़े बदलते हुए कहा। हेमा ने झट से उठते हुए कहा, “आप चल कर आँगन में बैठें, मैं अभी चाय ले कर आती हूँ।” हेमा ने मुस्करा कर उठते हुए कहा और रसोई की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये।

बस यही बात हरीश को, हेमा की अच्छी लगती है, कभी भी और कुछ भी कहे, हेमा हमेशा उसको हंस के सुन भी लेती है और अगर देती है तो हंस कर ही जवाब भी देती है। गुस्सा करना या किसी को बुरा भला कहना, हेमा की आदत ही नहीं थी। कभी-कभी हरीश सोचता, है, क्या हेमा को कभी किसी की कोई बात बुरी नहीं लगती, क्या हेमा सचमुच एक हिमखंड है जो बाहर से देखने में शांत और गंभीर लगता है लेकिन उसकी गहराई को शायद सागर भी नहीं नाप सकता।

हेमा, रसोई में जाकर हरीश के लिए चाय बनाने लगी। हरीश की यह आदत उसे बहुत अच्छी लगती थी, उसकी कोई भी जरूरत होती तो वो बिना दूसरे को अहसास कराये, अपनी बात कह देता था। इसीलिए हेमा, हरीश का बहुत ध्यान रखती थी। क्योंकि अगर हरीश को प्यास लगती थी तो वो खुद उठ कर पानी ले लेगा, लेकिन कभी किसी को कहेगा नहीं। हरीश की अपनी जरूरतें बहुत कम थीं और उनको भी पूरा करने का दायित्व किसी और का है, ये तो हरीश कभी सोच ही नहीं सकते थे।

हेमा जल्द ही अदरक-इलायची वाली चाय बिस्कुट के साथ हरीश के लिए ले आई और साथ ही बैठ गयी। यही तो वो वक़्त होता है जब हेमा-हरीश कुछ भी बात करते हैं, नहीं तो दोनो अपनी अपनी दुनिया में लगे रहते हैं, बिना किसी शिकवे शिकायत के, बस गृहस्थी की धुरी को अपनी लय में घुमाने में व्यस्त।

शायद हरीश किसी सोच में मगन थे, इसलिए चाय के घूंट चुपचाप भरने लगे। हेमा ने भी कुछ कहने या कुरेदने की कोशिश नहीं करी और अपनी यादों की पोटली उठा कर चुपके से अपने कमरे में आ कर बैठ गयी।

गभग पंद्रह दिन तक लोगों का आना-जाना लगा रहा, आखिर होता भी क्यूँ नहीं, शांति देवी, इस समय पूरे खानदान की एक मात्र जीवित बुजुर्ग थी और उनके जाने के साथ उनकी पीड़ी का भी अंत हो गया। इसलिए तेरहवीं होने तक घर में गहमागहमी बनी रही। सुमन-सुनीता ने शांति देवी की ग्रहस्थी को दो बहनो की तरह सजाने और सँवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। घर में सुरेश, अपने बड़े और छोटे चाचा यानी मँझले बाबू ओर मुन्ने बाबू, के दिल की धड़कन थे वहीं, मुन्ने बाबू अपने दोनों भाइयों की जान थे। पिता तुल्य नरेश और एक दोस्त की भांति महेश ने, अपने छोटे भाई, देवेश यानी अपने मुन्ने भैया को बेटे समान प्यार दिया था। माता-पिता के जाने के बाद, दोनों भाई इस बात का खास खयाल रखते थे की कहीं किसी बात से उनके छोटे भाई के मन को कोई ठेस न लगे।

इसी तरह सुमन-सुनीता भी मुन्ने बाबू को पुत्रवत स्नेह करतीं थीं और उनही हर इच्छा माँ की ही भांति समझ कर पूरा करने में यकीन रखती थीं। पूरे समाज के लिए, द्वारिका बाबू का परिवार एक आदर्श परिवार था, जहां छोटे और बड़े अपने अपने फर्ज़ और कर्तव्य का पूरा पूरा ध्यान रखते थे। समय की गति ने चलते चलते इस परिवार को नरेश-महेश के परिवारों में कुछ फूल ओर खिला दिये। अब तक नरेश बाबू के आँगन में चार पुत्र ओर चार ही पुत्रियों का आगमन हो चुका था। इसी प्रकार महेश बाबू भी दो पुत्रों के पिता बन चुके थे। देवेश यानी अपने मुन्ने भैया का भी उनही की पसंद की लड़की से विवाह हो चुका था और वो अपनी पत्नी के साथ, अपनी नौकरी के कारण अलग घर में अपनी दुनिया बसा चुके थे। तीनों भाइयों का प्रेम समय के साथ गहरा ही हुआ था और सभी बच्चे एक ही परिवार के अंग माने जाते थे। सबके सुख और दुख साझे थे।

मुन्ने भैया के विवाह में थोड़ी सी परेशानी जरूर आयी थी लेकिन बड़के दद्दा की समझदारी से वो भी दूर हो गयी और स्वरूप रानी, देवेश बाबू की धर्म-पत्नी बन कर इस परिवार का हिस्सा बन गईं।

समय अपनी गति से चलता रहा और बड्के और मँझले बाबू के घर में एक एक करके फूल खिलते रहे । दोनों की बगिया चार फूलों से और छह कलियों से महकने लगी। उधर नन्हें बाबू यानि देवेश बाबू के घर भी दो कलियों से महकने लगा। स्वरूप रानी अपने पति के साथ यूं तो ज़्यादातर परिवार से अलग ही रहती थीं, लेकिन उनका मन अपनी देवरानी और जिठानी के साथ रहने को ही मचलता रहता था। भरे-पूरे परिवार की सुगढ़ कन्या थी, स्वरूप रानी, जिनहे देवेश बाबू ने एक मित्र के घर होने वाली पार्टी में पसंद किया था और उसी मित्र के हाथ शादी का प्रस्ताव भी भिजवा दिया था। जब इस बात का पता बड्के और मँझले भाइयों को लगा, तो उन्हे बुरा तो लगा लेकिन उन दोनों ने अपना बड़प्पन दिखते हुए, स्वरूप रानी के माता-पिता के सम्मुख अपने हाथ जोड़ दिये तो उन लोगों ने भी अपनी कन्या देवेश बाबू के हाथ सौंप दी। उधर सुमन-सुनीता ने भी स्वरूप रानी को सहर्ष अपनी छोटी बहन का दर्जा दे दिया और सभी बच्चों की तो वो प्राण-प्यारी चाची बन गईं। थोड़े ही समय में स्वरूप रानी अपने मायके से बिछढ्ने का दर्द भूल कर इस नयी बगिया में रम गईं।

अभी स्वरूप रानी नए रिश्तों में सामंजस्य बिठाने में लगी थीं, की उनके पति का आदेश हुआ, उन्हे कंपनी की ओर से मथुरा जाना था। बेमन से ही सही, स्वरूप रानी ने अपने सारा ज़रूरी साजो-समान एक बक्से में बांध लिया। सुमन रसोई में ले जाने के लिए मठरी-कचौरी बना रही थी तो सुमन, घर में काम आने वाला बाकी साजो-समान बांधने का प्रयास कर रही थी। तीनों अपनी अपनी जगह प्रयास ही तो कर रही थीं, क्योंकि आँखें तो आंसुओं से धुंधली हो रही थीं, जिनहे वो अपने अपने आँचल से पुंछ कर अपने अपने काम में लगे रहने की नाकाम कोशिश कर रही थी और आँसू थे की शैतान बच्चों जैसे कहना ही नहीं मान रहे थे और बार बार आंखो से लुढ़क कर गालों पर बह आते थे। सुमन-सुनीता के बच्चे अपनी अपनी माओं की तीखी झिड़की खा कर एक दूसरे का सहमे हुए से हाथ पकड़ कर आँगन के एक कोने में बैठ गए थे। सुरेश सबसे बड़े भाई का फर्ज बखूबी निभा रहा था और सभी छोटे भाई बहनों का हाथ पकड़ कर एक कोने में अच्छे से बैठ गया और माँ से सुनी कहानी सुना रहा था और सभी भाई-बहन शांति-पूर्वक सुनने का बहाना भर कर रहे थे। बहरहाल, घर में एक अजीब सी शांति पसरी हुई थी।

“छोटी बहू ”स्वरूप रानी के कानों में अपनी बड़ी जिठानी की मधुर आवाज पड़ी और उधर देखने पर पाया, सुमन अपने हाथों में खाने-पीने का बहुत सारा सामान हाथों में लिए खड़ी थी। अभी सुमन कुछ कहने ही वाली थी की तभी दरवाजे पर सुनीता की चूड़ियों की आवाज़ आई। दोनों देवरानी-जिठानी ने आवाज की दिशा में देखा तो पाया की सुनीता बहुत सारे डिब्बे और कुछ अन्य समान लिए खड़ी है। तीनों एक दूसरे को देखकर मुस्करा दीं। स्वरूप रानी ने आगे बढ़कर अपनी दोनों जिठानियों का स्वागत किया और तीनों वहीं फर्श पर बैठ गईं।

“छोटि बहू” सुमन ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, “ये लो, रास्ते के लिए कुछ लड्डू और मठरी बनाए हैं, यह सबूत मिर्च का अचार जो तुम्हें बहुत पसंद है, वो भी रख दिया है और ये कुछ आम का भी अचार है, नन्हें भैया बहुत शौक से खाते है, इसलिए रख दिया है।” सुमन ने अपने आँसू छुपाते हुए कहा। “और फिर एक दम नयी जगह तो खाना बनाओगी नहीं, तो ये कुछ मटर की कचौरी और दाल की कचौरी भी रख रही हूँ, कुछ दीं तक खराब नहीं होगी और अचार के संग खाने में भी अच्छी लगेगी। साथ में यह खस का और बादाम का शर्बत भी है, जो प्यास भी बुझाएगा और ताकत भी देगा।” सुमन ने आंखे नीचे करे हुए सब कुछ कह दिया, डर था, की आँखें मिलते ही, अब तक के रोके हुए आँसू बाहर आ जाएंगे। इसी तरह सुनीता भी बोली, “ बहुजी, ये कुछ रुमाल सी दिये हैं, नन्हें भैया को रोज एक रुमाल चाहिए न, जाते ही तो मशीन खोलोगी नहीं, इसलिए, सी दिये हैं, ये कुछ सफ़ेद गिलाफ हैं, तकिये पर चड़ाने के लिए और कुछ थैले भी हैं, बाजार जाने के काम आएंगे।” स्वरूप रानी और अपने को नहीं रोक सकीं, भरभरा कर रो दीं और दोनों को एक साथ गले लगते हुए बोलीं,“ बड़ी भाभी, छोटि भाभी, मैं आप दोनों के बिना कैसे रह पाऊँगी,” और वो तीनों एक दूसरे के गले लग कर रो दीं।