मेरी कहानी……चौथी किस्त-

सामान्य

उधर तीनों भाइयों का भी कुछ हाल अच्छा नहीं था। बढ़के भैया, अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपाये बेंत की कुर्सी पर चुपचाप बैठे थे। कोई भी उन्हे ध्यान से देखकर बता सकता था की उन्होने पिछले एक घंटे से अखबार का एक भी हर्फ नहीं पढ़ा है, क्यूंकी ने तो उनकी सीधी-सपाट गर्दन अपनी जगह से हिली और न ही कोई पेज पलटा गया। इसी तरह मँझले भैया दालान की मुंडेर पर चुपचाप बैठे सूनी आँखों से आँगन को निहार रहे थे। उनकी आंखो की नमी दूर से साफ दिखाई दे रही थी। हाँ, मुन्ने बाबू ज़रूर घर के अंदर-बाहर आ-जा रहे थे। साथ ले जाने वाला समान एक तरफ, लोहे के संदूकों में बंद तैयार बैठा था।

“अरे कितनी देर और लगेगी” मुन्ने बाबू ने अंदर की ओर गर्दन करके अपनी पत्नी से पूछा। “जी, बस आ गयी” स्वरूप रानी साड़ी का पल्लू सम्हालते हुए जल्दी से बाहर आने के लिए खड़ी हो गईं। तभी जैसे सुमन को कुछ याद आया और जल्दी से स्वरूप रानी को हाथ पकड़ कर बैठा दिया और कुछ नीची आवाज़ में कहा “ देखो छोटी बहू, अम्मा जी नहीं हैं, इसलिए यह बात मुझे कहनी पड़ रही है। तुम्हें जैसे ही अपने अंदर कुछ हलचल दिखाई दे, हमें बस एक लाइन की चिट्ठी ड़ाल देना, हम दोनों में से कोई भी तुम्हारे पास आ जाएगा, अपने आप को अकेला बिलकुल न समझना” कहते हुए सुमन का गला फिर भर आया। सुनीता ने भी प्यार से स्वरूप रानी का हाथ पकड़कर जैसे अपनी जिठानी की बात का समर्थन किया।

एक हाथ में अपना पल्लू सम्हाले और दूसरे हाथ से आँख के आँसू पोंछते हुए स्वरूप रानी अपने कमरे से बाहर आ गईं। सुमन-सुनीता ने उन्हें दोनों ओर से इस प्रकार थाम रखा था जैसे किसी छोटे बच्चे को खो जाने के डर से माता-पिता ने अपने हाथों में कस के पकड़ रखा है। उन लोगों के बाहर आते ही बड़के और मँझले भैया भी अपनी-अपनी जगह से उठ खड़े हुए और नन्हें बाबू के अगल-बगल खड़े हो गए। शायद वो सब अपना सहारा ढूंढ रहे थे।

स्वरूप रानी ने झुककर पहले सुमन-सुनीता के पाँव छूए और फिर अपने दोनों जेठों की ओर बड़ गईं। बढ़के और मँझले बाबू ने झुकी हुई स्वरूप रानी को हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया और भीगी पलकों से पाँव छूने को झुके नन्हें बाबू को गले लगा लिया।

नन्हें बाबू-स्वरूप रानी अपना समान लेकर दरवाजे पर खड़े तांगे में बैठ गए और पीछे छोड़ गए सुमन-सुनीता की दबी घुटी सिसकियाँ और बड़े बाबू – मँझले बाबू की नम आखें।

थुरा के बड़े बाज़ार में एक गली के मुहाने पर तांगे वाले ने अपना घोड़ा रोक दिया और मुन्ने बाबू, स्वरूप रानी के साथ तांगे से उतर कर एक तंग गली के अंदर चलने लगे। बहुत सारे घुमाव घूमने के बाद अचानक गली एक जगह चौड़े रास्ते में बदल गयी और वहीं एक तरफ एक हवेली का दरवाजा था जिसके सामने एक बड़ा सा डंडा लेकर घनी मूँछों वाला दरबान पहरा दे रहा था।

“आइये-आइये बाबूजी, बहुजी ये बक्सा हमऊँ दे दो” दरबान ने तांगा रुकते ही आगे आते हुए कहा। स्वरूप रानी पहले थोड़ा हिचकीं और संकोच से भरी नज़रों से नन्हें बाबू की ओर देखा, “ अरे घबराओ नहीं, समान इनको दे दो,” और हँसते हुए दरबान से पूछा, “आउर सुनावा मंगल सिंह, काइसे बा,” ठेठ पूर्वी भाषा में नन्हें बाबू बोले। दरबान तो मानो निहाल ही हो  गया। “सब ठीक बा, कौनों फिकर नाहीं।” उसी रौ में मंगल सिंह ने जवाब दिया और तांगे से सामान उतार कर पीछे पीछे चलने लगा।

हवेली का दरवाजा खोल कर जैसे दंपति ने अंदर कदम रखा, स्वरूप रानी तो मानों सपनों की दुनिया में ही आ गईं।

सामने एक बड़ी सी हवेली स्वरूप रानी का इंतज़ार कर रही थी। बड़े बड़े कमरे, लंबे चौड़े दालान, बड़ा सा आँगन, खुली हुई छत मानो अपनी मालकिन के इंतज़ार में कब से खड़ी थीं। स्वरूप रानी चकोरी द्रष्टि से अपना नया घरौंदा निहार रहीं थीं और नन्हे बाबू अपनी जीवन-संगिनी को प्यार भरी निगाहों से देख रहे थे। खुली हवा में सांस लेने का सुख क्या होता है, इसका आज इन  दोनों को  पूरी तरह से  अहसास हो गया।

स्वरूप रानी ने कुछ कहने को मुंह खोला ही था की सामने से मंगल को आता देख चुप हो गईं। “ बहुजी चलो आपन दौ जन आराम कर लो, हमे कमरे में सामान जमा दै बा, बाकी आप बाद में दईख लेना” मंगल ने हुलसते हुए कहा।

मुन्ने बाबू ने स्वरूप रानी को कंधे का सहारा दिया और दोनों पति-पत्नी अपने नए नीड़ की ओर बड़ गए। “अरे माई री, ये तो बिलकुल महल जैसा है,” स्वरूप रानी ने अपनी हिरनी जैसी आँखें चारों ओर घुमाते हुए कहा।“ ऐसा लगता है, मैं तो इसमें खो ही जाऊँगी” अपनी साड़ी का कोना मुंह में दबा कर हँसते हुए वो बोलीं तो उसी रौ में मुन्ने बाबू का जवाब  आया, “चलो तो अच्छा है, मैं कोई दूसरी ले आऊँगा” और वो ठठा कर हंस पड़े। शांत कमरे में एक जुगल हंसी ने मानो बारिश की बूंदों सी सरगम के सुर छेड़ दिये।

मय अपनी मंथर गति से चलता रहा और मुन्ने बाबू की छोटी सी बगिया धीरे-धीरे एक कली की महक से महकने लगी। हेमा के जन्म से जहां एक ओर उनके जीवन में संपूर्णता आ गयी थी वहीं उनके और स्वरूप रानी के सम्बन्धों में भी अटूट प्रगाढ़ता आ गयी थी। हेमा ने उनकी प्रथम संतान के रूप में जन्म लेकर मुन्ने बाबू की जिंदगी को एक नया आयाम दे दिया था। यद्यपि स्वरूप रानी को अपनी पहली संतान के रूप में एक पुत्र की कामना थी, लेकिन हेमा के आने के बाद उन्होंने अपना सारा प्यार दुलार उसको सौंप कर अपनी इच्छा दूसरी संतान के लिए रख दी। तोतली आवाज़ में पुकारती हेमा अपने माता-पिता के हर पल को खुशियों और प्रसन्नता से भर रही थी। मुन्ने बाबू और स्वरूप रानी के दिन रात अब सिर्फ और सिर्फ हेमा के मुसकाती बातों के फूलों से भरे हुए थे। उनकी दुनिया में जैसे किसी और की गुंजाइश ही न ही थी। जागो तो हेमा की आवाज़ से, दिन में बैठो तो हेमा की आवाज़ पर, शाम उतरती तो हेमा की आवाज़ के साथ और रात आती तो हेमा के घुंघरुओं की खनक के साथ।

मुन्ने बाबू अब सहाय साहब के नाम से जाने जाते थे और अपने कार्य और ज़िम्मेदारी के प्रति पूरनिष्ठ थे। जिंदगी एक ढर्रे पर आकर बहुत मज़े में गुज़र रही थी। तीन वर्ष बाद फिर से स्वरूप रानी में माँ बनने के लक्षण दिखाई दिये और नौ महीने बाद वो एक और पुत्री की माता बन गईं। किस्मत ने फिर इस बार उन्हें पुत्र संतान का मुख देखने से वंचित कर दिया और इस बात से स्वरूप रानी के मन में बहुत निराशा ने घर कर लिया। राजकुमारी सा रूप लेकर जन्मी पुत्री के प्रति कोई विशेष मोह न होने के कारण, स्वरूप रानी बस जरूरत भर अपना कर्तव्य पूरा कर रहीं थीं। सहाय साहब यह सब देख कर भी खामोश थे। उन्हें अपनी पत्नी के मन की पीड़ा का अहसास था लेकिन उन्होंने किस्मत के आगे हार नहीं मानी थी। हेमा और रूपा दोनों उनकी दो आँखें थीं। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, स्वरूप रानी के मन में पुत्र लालसा बलवती होती जा रही थी। अगली बार उनकी गोद में पुत्र ही खेले, इस आशा में वो कुछ भी करने को तैयार थीं। अब उन्होंने जप-तप और पूजा-पाठ की ओर अपना ध्यान लगा लिया था। रोज़ कोई न कोई साधु या महात्मा उनके आँगन में किसी प्रकार की पूजा करते नज़र आने लगे। सहाय साहब को यह सब हालांकि पसंद नहीं था लेकिन वो अपनी पत्नी के मन को ठेस नहीं लगाना चाहते थे इसलिए चुपचाप सब कुछ देख रहे थे।

 

 

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